Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) १८९२३. ।गुरू जी वापस पटंे आए॥
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दोहरा: करति कूच दिन प्रति मजल, गुरू समेत नरेश।
पहुंचे पटंे आनि करि, भयो अनद विशेश ॥१॥
चौपई: लशकर के डेरे समुदाइ।
अुतरे पुरि ते बाहरि आइ।
बिशन सिंघ न्रिप अुतरनि करो।
सतिगुर निकटि होति भा खरो ॥२॥
शाहिबग़ादे को मैण दरशन।
करो चहति हौण, चरन सपरशन।
अधिक लालसा रहि अुर मेरे।
प्रापत होहि मोहि इस बेरे ॥३॥
ठाढे सतिगुर नदी किनारे।
सुनि नरेश ते बाक अुचारे।
हम भी मिलहि जाइ करि काली।
इहां बितावहि राति अुजाली१* ॥४॥
सुध कहि पठी मात ते तीर।
डेरा परो नदी के तीर।
मिलहि प्राति को सुनि सुधि हरखी।
दरब दान की धारा बरखी ॥५॥
जाचक गन हकार करि दीनि।
सुत सनेह जिस के मन पीन२।
ले पौत्रे को अंक, सुनावै३।
तेरो पिता भोर को आवै ॥६॥
अति अनद सुनि सुनि सभि कीना।
सेवक सिज़खमिले सुख पीना।
चिरंकाल मैण हटि गुर आए*।
देति बधाई मिलि समुदाए ॥७॥
१चानंी रात।
*पा:-सुखाली।
२तकड़ा।
३सुणांवदे हन।
*पा:-ले पौत्रे को अंक समाए।