Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) १९६
२४. ।पटंे निवास। राजा विदा॥
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दोहरा: श्री सतिगुर थिर सभा महि, संगति दरशन दीनि।
अरपि अुपाइन सभि मिले, पूर कामना कीनि ॥१॥
चौपई: पुन अुठि गमने ले सुत साथ।
जननी१ निकटि गए गुरु नाथ।
नम्रि होइ करि सीस निवायो।
पिखि नदन द्रिग महि जल छायो ॥२॥
अधिक ब्रिधा सुत प्रेम बिसाला।
सुत अंगनि२ परसहि कर नाला।
आशिख देति पुज़त्र! तुम जीवहु।
सहति अनद बडी बय थीवहु ॥३॥
सुख पावहु सभि रीति सुभाइक।श्री नानक जी सदा सहाइक।
तबि गुजरी पहुंची कर जोरे।
नम्रि होए पति चरन निहोरे ॥४॥
दासी दास नमो सभि करि कै।
रहे गुरू को रूप निहरि कै।
साहिबग़ादे की दिशि सारे।
तिस छिन सतिगुर सहित निहारे ॥५॥
बूझैण इतहु पिता जी गए।
कितिक दूर लौ प्रापति भए?
सागर बेला३ लगि अविलोका।
किधौण अुरे ही जावनि रोका४? ॥६॥
कौन देश हित गए लराई?
भई कि नहीण मिले रिपु आई?
मधुर पुज़त्र के बाक सुहाए।
सुनि सतिगुरू ब्रितांत बताए ॥७॥
देश कामरू मंत्रनि जोर।
१माता नानकी जी।
२पुज़तर दे अंगां ळ।
३समुंदर दा कंढा।
४जाणा रोक लिआ।