Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) २३३

२९. ।अहिदीआण दा टुरना॥
२८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>३०
दोहरा: सुनति दिजन ते सतिगुरू,
चितवति भए अुपाइ।
-श्री नानक को बर महां,
राज तुरक बड पाइ- ॥१॥
चौपई: तिस को बनहि मिटावनि जैसे।
अनिक जतन चितवतिचित तैसे।
कितिक देर गुरु तूशनि ठानी।
पिखि मुख सभा न को कहि बानी१ ॥२॥
कर महि धरी पज़त्रिका बाची।
शिव की लिखत देखि हित राची।
पठी२ सकल ही ठानी मौन।
देखति रहे न बोलो कौन ॥३॥
चतुर घटी लगि तूशनि रहे।
नहि अुपाइ को अुर महि लहे।
-अपनो सिर दे कूरो करैण।
बखशो राज सरब इम हरैण ॥४॥
अपर अुपाइ न बनि है कोई।
भली प्रकार बिचारो सोई-।
कर निशचै अुर महि जबि लहो।
दिज गन संग गुरू तबि कहो ॥५॥
बिज़प्र बिं्रद! तुम इकठे होवहु।
करहु सकेलन जिह शुभ जोवहु।
दिज़ली पुरि को सकल पयानो।
तहां जाइ निज ब्रिथा बखानो ॥६॥
हमरे छज़त्री हैण जजमान।
तिन ते करहि खान अरु पान।
रहैण अलब सदा हम तांहूं।
दान अनेक बिधिनि लेण जाहूं ॥७॥


१श्री गुरू जी दा मुख वेख के सभा विज़चोण किसे ने कोई बाणी ना कही।
२प्रेम विच रची होई रचना पड़्ही।

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