Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ३५७

४७. ।सिज़ख दा अग़मत दिखाअुणा॥
४६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>४८
दोहरा: श्री गुर घर ते वहिर को, दिए चुपाक बगाइ।
परे जाइ करि तहि कछू, सिज़ख हुते जिस थाइ॥१॥
चौपई: इक सिख ने लै करि मुख पायो।
चूपति भयो साद रस आयो।
गुरू अुचिशट१ को करो अहारा।
शकति सहित भा ततछिन भारा ॥२॥
करि अहंकार अधिक अुर फूला।
जानति भयो -न को मम तूला२-।
इसी प्रकार भई भुनसार।
सूरज अुदो मिटो अंधकार ॥३॥
तबि तुरकेशुर के नर आए।
शांति रूप सतिगुरू जिस थाएण।
नहीण प्रेत ने कछू बिगारा।
नहीण त्रसे३, बैठे सुख भारा ॥४॥
इम सुनि गुरू हकारनि करे।
तुरकेशुर ने अुर हठ धरे।
निकसे भवन बिखै ते जबै।
मिले सिज़ख संगी जे तबै ॥५॥
बंदन कीनि चरन सिर धरि कै।
बोलो दै करि जोरनि करि कै४।
श्री सतिगुर कोण संकट सहीअहि।
मो कहु नैन सैन सोण कहीअहि ॥६॥
मैण समरथ हौण सगरी भांति।
चहौण सु करौण पिखहु सज़खात५।
सो हग़ार लाखन का गनौण।
तुरक तुरक पति जुति सभि हनौण ॥७॥


१सीत प्रशादि।
२मेरे तुज़ल कोई नहीण।
३डरे नहीण।
४(शकती प्रापत सिज़ख) हथजोड़ बोलिआ।
५प्रतज़ख।

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