Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 36 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ५१

समापती लई अगंम तोण, ैब तोण, गुपत संसार तोण रूहानी मदद दी टेक मंगदे हन
ते अुसे दा आसरा बंन्हदे अर याचनां करदे हन।
(अज़गे हुण मिलवेण मंगल चलदे हन)
१५. ालसा ते सतिगुरू जी दे मिलवेण मंगल।
।गुरयश कथन लई अपणी असम्रज़थता परंतू तीब्र इज़छा॥
सैया: श्री गुर को जसु सागर रूप
अुजागर है सभि+ लोकन माहूं।
मैण तुलहात्रिं जोण करि कै
निज बुज़धि ते पार परो अबिचाहूं।
होइ हणसी जग मैण अधिकाइ
तअू चित मैण अतिशै अुतसाहूं।
अूच तरू फल जोण लगि* सुंदर
वामन हाथ पसारति ताहूं ॥२८॥
तरू = ब्रिज़छ।
वामन = बअुणा, बहुत मधरे कज़द दा आदमी।
अरथ: (इह गज़ल कि) स्री गुरू जी दा जस समुंद्र वाणू (अथाह ते बेकिनार) सभ
लोकाण विच अुजागर है, मैण हुण अपणी (तुज़छ) बुज़धी नाल (मानोण) कज़खां दा
तुलहा बनाके पार पैंां चाहुंदा हां, (भावेण मेरे इस निमांे यतन अुते)
जगत विच भारी हासी ही होवे तद बी मैण चित विच बहुत अुतसाहित हुंदा
हां, जिवेण अुचे ब्रिज़छ ळ सुहणा फल लगा (वेखके) बाअुणा हज़थ अुस वज़ले
पसारदा है (ते लोकाण दे हासे तोण अुतसाह हीन नहीण हुंदा)।
।अपणी असम्रज़थता दा अुपाअु, गुरू दी टेक, खालसा ते सतिगुराण जोग बंदना॥
चौपई: स्री गुर सुजस रुचिर मणि मांिक।
सिज़खी अुचता गिरवर थानिक।
साधन रूप चरन नहिण मेरे।
अहोण पिंग किम चढिव अुतेरे ॥२९॥
निज मति को शिंगार बनावन।
चाहित हौणपरोइ पहिरावन।
प्रेम रूप गुन करोण बंधावन।
लोक प्रलोक सुहावन पावन ॥३०॥
गुर करुंा असुवारी पाइ।


+ पाछ-बहु।

*पा:-लखि।

Displaying Page 36 of 626 from Volume 1