Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ४९९
६८. ।औरंगग़ेब ळ डर। गुर प्रताप सूरज दे रूपक दी वाखा॥
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दोहरा: ठौर ठौर रौरा परो, प्रथम सीस नहि पाइ।
लोप भयो गुर धर१अबहि, देखि रहे बहु थाइ ॥१॥
चौपई: मूढ नुरंगे ढिग सुधि गई।
प्रथम सीस की जो बिधि भई।
तिम ही धर धरनी महि बरो।
कै अकाश महि अूरधचरो ॥२॥
किस हूं ते कुछ जाइ न जानी।
भयो लोप देखति अगवानी।
सुनि सुनि अचरज को तबि शाहू।
रहो बिसूरत बहु मन मांहू ॥३॥
करामात कामल बड अहे।
तअू न रंच दिखावनि चहे।
खरे सिपाही गन रखवारे।
धर सिर दुरे२ न किनहु निहारे- ॥४॥
भनहि मुलाने जे दुर गए।
तुमहु काज अपने करि लए।
शर्हा न मानी प्रान बिनासे।
अबि नर मानहि जथा प्रकाशे३ ॥५॥
सभि के अुर डर होहि बिसाला।
हुकम अदूली ते अस हाला४।
समुझायहु बहु बारि घनेरे।
नहि मानो हठ ठांनि बडेरे ॥६॥
सुनि करि भनहि मूढ चवगज़ता।
हिंदु धरम की राखी सज़ता।
मोर मनोरथ भयो न सोई।
कलमा पठहि तुरक जग होई ॥७॥
जमादार को तबहि बुलायहु।
१धड़।
२धड़ ते सिर छुप गए।
३भाव जिवेण तुसी कहोगे।
४हुकम मोड़न ते ऐसा हाल हुंदा है।