Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ५३५

५८. ।बावली महातम। संत साधारण। गंगा स्रोत बाअुली विच। इक जोगी॥
५७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>५९
दोहरा: भगति खग़ाना खुलि रहो, सतिगुर के दरबार।
चार पदारथ संगतिहिण१, देति लगति नहिण बार ॥१॥
चौपई: तीरथ परम रचो बड पुंन।
सेवति भए पुरख सो धंन।
महां महातम है जिस केरा।
जिस मज़जै फल लहै घनेरा ॥२॥
सुंदर सीतल निरमल खरो।
अति गंभीर नीर जिह भरो।
दज़खं दिश महिण झरना बहो।
सुरसरि को प्रवाह२ तहिण लहो ॥३॥
रची चुरासी जिह सौपान३।
गिनि जबि देखी क्रिपा निधान।
मुख ते बाक कहो तिसि काल।
जो सिख दरसहि प्रेम बिसाल ॥४॥
बारि चुरासी४ करहि शनान।
इतने जपुजी पाठ बखानि।
सतिगुर मूरति करि कै धान।
मिटहि चुरासी आवनि जानि५ ॥५॥
जोण कोण पाइ भगतिगुर केरी।
मिटहि जून तिह भ्रमन कुफेरी६।
अपर मनोरथ धरि करि न्हावै।
शरधा धरै तुरत सो पावै ॥६॥
अनिक अघन की नाशनि हारी।
भई बापिका निरमल बारी७।


१भाव, भगती दे नाल चार पदारथ भी हन। (अ) संगतां ळ।
२गंगा दा प्रवाह।
३पौड़ीआण।
४चुरासी वेर।
५चुरासी (लख जून विच) जनम मरन।
६खोटे फेर फिरना जूनां (विच) अुसदा।
७निरमल जल वाली।

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