Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ६२३

६७. ।स्री रामदास जी ळ आयू ते गुरता बखशंी॥
६६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>६८
दोहरा:बावन चंदन१ सतिगुर, होवहिण जिन बन देश।
मज़ल करति तरुवरुन२ को, तिअुण नर भगति अशेश ॥१॥
चौपई: गोइंदवाल बसे इक थान।
सकल देश भी भगति महान।
जहिण कहिण ते सुनि करि जज़गासी।
आनणद धारि बसहिण गुर पासी ॥२॥
चार पदारथ ठांढे दारे।
देति जननि को खुले भंडारे।
जिम चित चितवहिण गुरू क्रिपाल।
सो बिधि बनहि आन ततकाल ॥३॥
इक दिन मज़जन करि गुर थिरे।
भानी आइ दरस को करे।
पिखि तनुजा पर परम क्रिपाल।
श्री मुख ते बोले तिस काल ॥४॥
रामदास अबि तन परहरै।
कहु पुज़त्री का तबि तूं करैण?
छिन भंगर३ सभि अहैण सरीर।
बिनसति तुरत न करिहीण धीर४ ॥५॥
भानी महां चतुर सभि जानी।
-होति न कबहुं कूर पित बानी-।
द्रिड़्ह निशचे धरि इसी प्रकारी।
करति शीघ्र नक नाथ अुतारी ॥६॥
श्री गुर पित के धरी अगारी।
हाथ जोरि मुख बिनै अुचारी।
प्रभु जी अपर कार का करिहौण।
जे बिधवा के धरम, सु धरिहौण ॥७॥
किधौणचिता के अूपर चरि हौण।

१संदल दीआण किसमां विचोण श्रेशट किसम।
२चंदन कर दिंदा है ब्रिज़छां ळ।
३छिन विज़च नाश हो जाण वाले।
४ठहिरना नहीण करदे।

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