Sri Nanak Prakash
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६७. गुरचरण मंगल प्रहलाद॥
{नौधा भगती} ॥२९..॥
दोहरा: श्री गुरु पग शोभाबिमल, कर अुर को लकार॥
शुभ सुंदरता पाइ हैण, दै लोकन सतिकार ॥१॥
बिमल=अुज़जल संस:विमल:॥
लकार=गहिंा, अलकार दा संखेप, मात्रा घज़ट करन वासते
शुज़भ=भाग भरी
अरथ: श्री गुरू जी दे चरनां दी अुज़जल शोभा ळ (आपणे) हिरदे दा गहिंा बणा लै
(जिस तोण तूं अुह) भागे भरी सुंदरता पाएणगा (कि जिस नाल) दोहां लोकाण
(विच तेरा) आदर (होवेगा)
श्री बाला संधुरु वाच ॥
चौपई: सुनो गुरू अंगद सुखरासा!
पुन प्रहलाद कहति इतिहासा
मुझ समेत जनमे सुत चारा
कंचनवपु१ भा हरख अपारा२ ॥२॥
मो पर करुना नारद कीनी
सदा भगति महिण मति रहि भीनी
बाल बैस ते क्रीड़ा३ तागी
हरि के चरन कमल मति पागी४ ॥३॥
बैठति अूठति सोवति जागति
सिमरन नाम बिखै अनुरागति५
चिंता चितव चरन प्रभु कब ही६
रोदन७ रिदे अुमंगति तब ही ॥४॥
कब चिंता तजि गुणन८ सिमरि कै
हसत भयो अुर हरख सु धरि कै
श्री गुर सुन अंगद
१सोने दे सरीर वाला भाव हिरनकशप२बहुत प्रसंन होइआ
३खेड
४लग गई
५प्रेम करदा
६कदे प्रभू दे चरनां (दी प्रापती दी) चिंता चितवदा सां
७रोंा
८गुणां ळ