Sri Nanak Prakash

Displaying Page 236 of 1267 from Volume 1

२६५

९. सारदा दा मंगल सज़चा जंवू॥

{हरदिआल पंडित} ॥३॥
{बदोबदी जनअू पा दिज़ता} ॥४३॥
दोहरा: स्री सरसती सरबदा बरन सेत सुखकंद
तरल आणगुरी बीन सोण बंदोण दै कर बंदि ॥१॥
सरसती=विदा दी देवी, शारदा
सरबदा=सदा ही संस: सरवदा॥
बरन=रंग संस: वरण॥ सेत=चिज़टा संस: सेत॥
सुखकंद=सुखां दा मूल सुज़खां दा फल
तरल=चंचल, थररा रहीआण
आणगुरी=अुणगलां, संस: अंगुल॥
बीन=बीना, वींा सतार वाणू तूंबिआण वाला इक संगीतक साग़, संस: वींा॥
कर=हज़थ बंदि=जोड़के
अरथ: (जिसदा) रंग चिज़टा है ते (दरशन) सुखां दा मूल है; (गुर कीरती विखे)
(जिस दीआण) अुणगलीआण बींां वजाअुण विच चंचल हो रहीआण हन, अुस श्री
शारदा ळ मैण दोवेण हज़थ जोड़ के सदा ही नमसकार करदा हां
श्री बाला संधुरु वाच ॥
चौपई: कालू बहुरो कीनि विचारा
जज़गुपवीत१ देनि हित धारा
प्रोहित जो तिह को हरिदाला
सो बुलाइ लीनो ततकाला ॥२॥
अुर अभिलाखा सकल सुनाईछज़त्री रीति करो दिजराई! {हरदिआल पंडित}
सुनि करि बच अस दिज हरिदालू
कहो सौज२ सभि आनि३ बिसालू ॥३॥
शुभ बासुर सो दीन बताई
करि अरंभ जिअुण अधिक वडाई
दिजबर ते सुनि करि तब कालू
सभि संभारन४ आनि अुतालू१ ॥४॥


देखो अधाय १ अंक २ दा भाव
१जूं
२समिज़ग्री
३मंगाओ
४सम्रिज़गी

Displaying Page 236 of 1267 from Volume 1