Sri Nanak Prakash
१५८७
२०. गुर चरण मंगल सिज़धां नाल गोशट॥
१९ੴੴ पिछला अधिआइ ततकराअुतरारध - ततकरा पूरबारध अगला अधिआइ ੴੴ२१
{सिज़धां ने तिल भेटा करना} ॥३॥
{सिज़धां नाल गोशट} ॥७..॥
{मंगलनाथ} ॥१०॥
{भंगर} ॥११..॥
{गोरख मता} ॥१८॥
{धूंी प्रसंग} ॥२७..॥
{गुरू जी ने पिज़पल हरा करना}
{गोरख दी शकती खिज़चंी} ॥४१॥
{शंभूनाथ} ॥४५..॥
{फहुड़ी गंगा} ॥४७॥
{मछिंद्र} ॥५५॥
{रीठे मिज़ठे करने} ॥५७..॥
{सिज़धां दा छल} ॥६३॥
{गोरख दी खड़ाम अते मुंद्रा वापिस} ॥७२..॥
{गोरख मता तोण नानक मता} ॥८०॥
दोहरा: श्री गुर चरन सरोज को, रिदै धान धरि रोज
पाइ सुमति को ओज अति, निज सरूप को खोजि ॥१॥
{रोज=हर दिन, नित फारसी:-रोग़॥ ओज=बल, प्रबीनता}
अरथ: श्री गुरू जी दे चरणां कमलां दा धिआन हिरदे (विच) नित धारना करके
स्रेशट बुधी दा (मैण) बहुता बल प्रापत कीता है (जिस नाल हुण) निज सरूप
दी खोज (विच लगरिहा हां) अथवा-(हे मन! या हे जगासू!) श्री गुरू
जी दे चरणां कमलां दा धिआन रिदे विच सदा धर, (जिस तोण तूं) सुमति दा
बहुत बल (पा के) निज सरूप दे खोज (अथवा गान ळ) प्रापत होवेण
श्री बाला संधुरु वाच ॥
चौपई: श्री अंगद सुनीए गुन पूरन
आए जंबू महिण पुन तूरन
सहिज सुभाइक आइ सुहेलो१
होति भयो सिज़धन सोण मेलो ॥२॥
गोरख तप को हुतो सथाना
बैठि गए तहिण क्रिपा निधाना
सभि सिज़धन मिलि इक तिल लीनो {सिज़धां ने तिल भेटा करना}
गुर आगे भेट सु धरि दीनो ॥३॥
कहोण कि सभि महिण दिहु बरताई
१सुख नाल आए