Sri Nanak Prakash

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२३. स्री गुरू गोबिंद सिंघ मंगल तलवंडी जाणा॥

{महीने लई मोदीखाना बाले पास} ॥३३॥
{हरदिआल पंडित निहाल} ॥६६॥
{अुसतादां ळ मिले} ॥७५॥
दोहरा: सिकता कन ते मेरु किय मेरहुण ते कन कीन
श्री गुबिंद सिंघ नमहि मम केवल दानी दीन ॥१॥
सिकता=रेत कन=किंके तोण मेरु=मेरू-परबत
नमह=नमसकार मम=मेरी केवल=निरे, इकज़ले आप
अरथ: (जिसने) रेत दे किंकिआण ळ परबत बणा दिज़ता ते परबत ळ किंके कर
सिज़टिआ, (हां जो) दे नां ळ दान देण वाला इकज़ला आप है (अुस सतिगुर)
श्री गुरूगोबिंद सिंघ जी ळ मेरी नमसकार होवे
भाव: कवि जी दा इशारा इज़थे रेत दे किंके तोण हिंदवाइन दा है, ओह कौमां जो
हिंदवासी हन, हिंद विच तीरथ ते मंदर रज़खदे सन, जिन्हां ळ विदेशीआण,
पहिले पठां फेर मुगलां ने खेरू खेरू कर दिज़ता सी, कि ओह जो जथेबंदी तोण
टुज़ट, आन शान तोण गिर, लगातार ग़ुलम हेठां रेत दे किंके वाणूं खेरू खेरू
होए सन, जिन्हां दी कदे परबत वरगी संघटन ते जज़थेबंद अवसथा सी, अुन्हां
दी लाज रज़खी, अुज़च आदरश दिज़ता ते खालसा साज जथेबंद कर परबत
बनाया, ते परबत वरगे संघटन तुरकाण दा नाश अरंभ दिज़ता, जो रेत वाणूं
टुज़ट फुज़ट, बिखर, अज़ज किते नग़र नहीण पैणदा हिंदू जो दीन हो चुके से अुन्हां
ळ होर ना कोई बाहुड़िआ, आप इकज़ले दानी हो के बाहुड़े
श्री बाला संधुरु वाच ॥
चौपई: निकटि नगर के गई बराता
जाण की शोभा भांतिनि भांता
बाजे तुरही१ पटहि२ निशाना३
पुरि के नरनि सुनी धुनि काना ॥२॥
पावस४ विखे अुठा घन५ घोरा६
है प्रमोद७ जिअुण मोर न थोरा८१तुरी
२भेरी
३नगारे
४बरसात
५बज़दल
६अवाज
७खुशी
८बहुत

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