Sri Nanak Prakash
२०४७
५३. सारदा मंगल, सिज़खन प्रति अुपदेश॥
५२ੴੴ पिछला अधिआइ ततकरा अुतरारध - ततकरा पूरबारध अगला अधिआइ ੴੴ५४
{गुरू अंगद जी ळ खडूर जाण दा हुकम} ॥२..॥
{सिज़खां प्रति वैरागमई अुपदेश} ॥२४..॥
दोहरा: स्री सरसती सिमरनो, तीछन महां कुठार
बिघन ब्रिज़छ के बिपन को, करति संघार सुधारि ॥१॥
कुठार=कुहाड़ा बिपन=जंगल संस, विपिन॥
संघार=मार देणा, नाश करना
संस, सणहार॥ सुधार=चंगी तर्हां
अरथ: (कवीआण दा कविता करन समेण) स्री सरसती ळ याद करना इक मानोण तिज़खा
कुहाड़ा है (जो) बिघनां (रूपी) ब्रिज़छां दे बनां ळ चंगी तर्हां नाश करदा है
चौपई: बहुरो कितिक बितायो कालाश्री नानक जी परम क्रिपाला
इक दिन अंगद संग बखाना {गुरू अंगद जी ळ खडूर जाण दा हुकम}
तुम अब गमनहु अपन सथाना ॥२॥
इहां न रहीए आइसु एही
समां समीप तजोण निज देही
दिन थोरे ही रिदे लखीजै
ग्राम खडूर पयानो कीजै ॥३॥
सुनि अंगद बंदे दै हाथा
बोलो बचन लाइ पद माथा
रावर की रजाइ मम सीसा
एक अवर बूझोण जगदीशा ॥४॥
तागन तन को समा जि आही
तबि दरसोण मैण आइ कि नांही?
आइसु दिहु तअु आअुण समीपा
सुनि बोले बेदी कुलदीपा ॥५॥
तुम नहिण आवो तब इत आसा१
हम आवहिणगे तुमरे पासा
जिस बिध को नहिण सकहि लखाई
तिअुण तबि आइ मिलैण तुझ ताईण ॥६॥
पा:-बनन
१इस पासे