Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रतापसूरज ग्रंथ (राशि ३) १४
राशि तीसरी चज़ली
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
स्री वाहिगुरू जी के फते* ॥
अथ त्रितिय रासि कथन ॥
अंसू १. ।मंगल। गुरू घर ऐशरज॥
ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ३ अगला अंसू>>२
१. कवि-संकेत मिरयादा दा मंगल।
दोहरा: सारसुती सरिता वहो बाक तरंग विचार ॥
चारु सु मम मानस बिखै, जानोण सार असार ॥ १ ॥
सरिता-नदी। बाक = वाक, सुहणे वाक।
बिचार = विचार, अुज़तम खिआल, भाव है कि सुहणे वाकाण विच अुज़चे खाल
होण। विचार रहत सुहणे वाकाण वाली कविता ना रचां।
चारु = सुंदर। मानस = मान सरोवर।
सार असार = सज़च, ना सज़च। अुह साखीआण जो ठीक ठीक हन ते ओह जो ठीक
नहीण हन।(अ) अथवा आपणी कविता ळ कहिदे हन, सार कविता ते असार कविता दी
परख करके रचना रचां।
अरथ: (हे) सरसती! तूं नदी (वाणू ग़ोरदार होके) वग पअु (जिस विच कि) वाकाण
दे तरंग अुज़ठं (ते) विचार (दीआण लहिराण पैं अते) मेरे सुहणे
मानसरोवर (वरगे मन) विज़च (आके पअु तां जो मैण आपणी रचना लिखं
वेले) सज़ची ते ना सज़ची (गज़ल) ळ परख लवाण।
भाव: सरसती दा खाल हिंद विच सरसती नदी तोण चलिआ है, विसथार लई
देखो श्री गु: नानक प्रकाश पूरबारध अधाय १ अंक २। अुसे खिआल दी
अुडारी विच कवि जी आपणे मन ळ मान सरोवर झील बणाअुणदे हन ते
अरशी कविता दे रौ ळ सरसती नदी दा रूपक देके आखदे हन कि सुहणे
खिआलां दे गुलदसते वाणगूं गुंदे वाकाण नाल सजी कविता दीआण ठाठां मारवीण
रौ लैके मेरे हिरदे विच आ जो मैण आपणी कविता रचां ते अुस कविता विच
कही जाण वाली कथा निरदूखन वरणन कराण।
होर अरथ: द्रिशटांत दा इक अंग लईदा है, पर जे पूरा घटाअुण दा जतन
करीए तां अुज़परले द्रिशटांत विच इक नूनता है कि सरसती मानसरोवर विच नहीण पैणदी, इस लई ऐअुण भाव लईए कि नदी थल
पुर चलदी है, एथे थल है मानस, मानस दा इक अरथ है मन
समेत अंतहकरण सारा। सो मेरे अंतहकरण रूपी भूमिका अुते हे
सरसती तूं आके विचर। जिस भूमि ते सज़छ नदी वगे अुस ते पए
*अरथां लई देखो पिछे दूसरी रासि दा आरंभ।