Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 10 of 437 from Volume 11

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) २३

२. ।भाई गड़्हीआ ते दारका दास बकाले आए॥
१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>३
दोहरा: निज नदन को गुरू हित, करति अनेक अुपाइ१।
चित महि मति ठहिराइ करि, अुज़दम ते सुख पाइ२ ॥१॥
चौपई: पूरब को बिवहार चितारा३।
इक सिख को निज निकटि हकारा।
कहि तिस ते पज़त्री लिखवाई।
श्री गुरु अमरअंस बुलवाई ॥२॥
गड़्हीआ सिज़ख रहै तिस थान।
तिस ढिग पठी पज़त्रिका जानि।
-सो जे अइ कहै मम नद४।
समझावहि हित बाक बिलद ॥३॥
मानहि कहो५, प्रगट जग होइ।
दरशन करहि आनि सभि कोइ-।
गमनो सिख लै गोइंदवाल।
अुलघो मारग सगरो चालि ॥४॥
श्री गुर अमरदास को अंश।
जाइ बिलोके जन शुभ हंस।
मसतक टेकि पज़त्रिका दई।
भनी बारता जैसे भई ॥५॥
सभि महि मुज़ख दारका दास।
लीनि पज़त्रिका हमरे पास।
लिखो स तेग बहादर माता६।
-तुम अुपकारी सभि सुख दाता ॥६॥
माननीय जग के गुनखानी।
अुज़जल मसतक शुभ बरदानी।
ठटहु म्रिजाद गुरू घर केरी।


१(गुरिआई विदत करन लई) अपणे पुज़त्र ळ (समझावन) वासते अनेक यतन करदी है।
२चित विच (इह) सुमज़ती निशचे कीती कि सुख दी प्रापती अुज़दम नाल ही होइआ करदी है।
३भाव छेवेण पातशाह दा वर रूप कथन।
४मेरे पुज़त्र ळ?
५किहा मंन जावेगा।
६साडे वज़ल लिखिआ है श्री तेग बहादर जी दी माता ने।

Displaying Page 10 of 437 from Volume 11