Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) ११४

१५. ।लशकर दी चड़्हाई॥
१४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>१६
दोहरा: कुतबखान बैठो पिखो, हग़रत अपने तीर।
तूं भी करि प्रसथान को, सुमति वंत बड बीर ॥१॥
चौपई: नगरजलधर तालख तेरे१।
दिहु लशकर अुतसाहु घनेरे।
सभि की सुधि लिहु देखहु जंग।
बनहु सहाइक पैणदे संग ॥२॥
निकटि रहिन ते तूं सभि जानहि।
गहो जाइ गुर तिम बिधि ठानहि।
अपनि चमूं सभि संग रलावौ।
मिलि करि काज करो इत आवौ ॥३॥
सुनति कुतब खां कहि कर बंदि।
निशचै गहि श्री हरिगोविंद।
पैणदखान जबि ते अुठि आवा।
तबि को मोहि भरोस अुपावा ॥४॥
पुन लशकर अबि चढो बिसाला।
किम गुर बचहि नहीण इस काला।
जाइ संग मैण देअुण गहाइ।
सभि सैना को संग मिलाइ ॥५॥
शाहु जहां प्रसंन बड है कै।
बहु मोला सिरुपाअु सु दै के।
कुतबखान को दीनसि विदा।
हरखति वहिर निकसि करि तदा ॥६॥
कालेखान संग सभि मिले।
चढिनि हेतु करि मसलत भले।
पैणदखान ते आदिक कहैण।
लूटहि गुर धन गन को लहैण२ ॥७॥
सभि जानति मैण भेद बतावौण३।


१तेरे अधीन है। अ: तअज़लक।
२लवाणगे।
३मैण सारे भेत जाणदाहां (कि धन किज़थे है अुह) दज़सांगा।

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