Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) ११६

१६. ।मज़खं शाह दा मसंद ळ दंड॥
१५ॴॴपिछलाअंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>१७
दोहरा: आवनि निज पर क्रोध कै, ब्रिंद नरनि को जानि।
धीरमज़ल ने धीर सभि, कीनसि बल जुति हानि१ ॥१॥
चौपई: -मज़खं लिये सैन कौ आवा।
करोण जुज़ध मैण बाक अलावा।
संगति महि नर आयुध धारे।
करे सकेलनि सगल हकारे- ॥२॥
जानति भयो -मनुज समुदाइ।
हमर भट थोरे बिन पाइ२।
अपनो दुरग न अपनो ग्रामू*।
अपनो मिज़त्र+ न अपनो धामू ॥३॥
बिगर जाइ३ जे परहि++ लराई।
सबल ब्रिंद जै४, निबल पलाई।
मरहि सुभट अरु जै हैण भाजू।
नशटहि कारज सकल समाजू ॥४॥
यां ते तूशनि ही बनि आवै।
बैठे कोइ न आयुध घावै-।
निज मसंद सोण बोलो तबै।
हम करतज़ब करैण का अबै ॥५॥
भागे बनहि, न बनहि लराई।
सदन आपनो निकटि न थाई।
लरहि, सुभट दिखीयति हैण थोरे।
अुत जोधा गन भए सु जोरे ॥६॥
लरि कै मरि जै हैण सभि आज।
कै निज निज दिशि परि हैण भाज।

१भाव घबरा गिआ।
२पैर नहीण जिन्हांदे भाव डज़ट के नहीण लड़ सकदे, किअुणकि अनीती साडी है इस करके दिल
मग़बूत नहीण रहि सकदा।
*सोढीआण दा बाहरोण बकाले आअुणा सपज़शट हो रिहा है।
+पा:-बिज़त।
३(गज़ल) बिगड़ जाएगी (अ) लोकी विगड़ जाणगे (मेरे नाल)।
++पा:-लरहि।
४जिज़त जाणगे।

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