Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) ११६

१४. ।बरात गुरू के लाहोर॥
१३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>१५
दोहरा: जाम निसा ते गावहीण, आसावार सुहाइ।
ब्रिंद रबाबी रस१ करैण, राग अनेक सुनाइ ॥१॥
हाकल छंद: सिख सुनहि प्रेम अुपजाए।
तन मानुख करि सफलाए।नर बडी प्राति सभि जागे।
लघु दुंदभि बाजनि लागे ॥२॥
धुनि नौबति की मन भाई।
नर नारि अनद अुपजाई।
पुन बजे सरब ही बाजे।
जिन अुठही अुज़च आवाजे ॥३॥
गुर अुठि करि सौच शनाने।
शुभ बसत्र पहिरबो ठाने।
अुशनीक२ नीक सिर सोही।
बधि जिगा जराव जरोही३ ॥४॥
धरि कली तुंग बिराजी।
मुकतान संग४ शुभ* साजी।
गर मोतिनि माल बिशाला।
बिच हीरे जरे अुजाला ॥५॥
नवरतने अंगद५ पाए।
जनु नव ग्रैह भुज लपटाए।
पुन गरे भगअुती६ पाई।
नर चामर चारु ढुलाई ॥६॥
बड फरश ममली होवा।
बर झालर ग़री चंदोवा।


१अनद।
२दसतार।
३जड़त नाल जड़ी होई।
४मोतीआण नाल।
*पा:-मुकतान बज़ज्र जुति।
५नौण रतनां वाले बुहज़टे।
६श्री साहिब।

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