Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १२०
बैठो चहौण इहु मेरो हियो१ ॥७॥
जोण बिसफोट२ पको दुख देति है
चोट लगेपुन है अधिकाई।
तिअुण बिवहार, बिलोकनि, बोलनि
श्रौन सुनै मुझ है बिकुलाई३।
कोठड़ी को दर सो चिन देहु४,
कहो किस पास न, कैसे बताई५।
मो पर यौण अुपकार करो
बिच बैठि रहौण जिमि है न लखाई६ ॥८॥
बूझनि कीन भिराई ने फेर
इकंत रहो थित है इस थाईण।
कोण दर को चिनवावति हो,
इह बात बने नहिण, संकट पाई।
श्रौन सुने तिस ते किय तूशनि७
फेर नहीण कुछ बानी अलाई।
बैठि रहे जुग लोचन मूंद
मनो शिव मूरति धान लगाई८ ॥९॥
श्री गुर को रु जानि तबै
दर को चिनि९ कीनो है बंद भिराई।
फेर करो इक सार भले
बहु पंक१० लगाइ कै कीन लिपाई।
कोइ न जानि सकै दरु को
इस भांति कियो जिमि श्री गुर भाई१।
१मेरा जी करदा है।
२फोड़ा
।संस: विसफोट॥।
३विआकुलता।
४बंद कर देहु।
५(कोई) किवेण पिआ पुज़छे।
६पता ना लगे जिवेण।
७चुज़प कीती।
८मानोण शिव दी मूरती धिआन लाई बैठी है, भाव अचज़ल समाधी तोण है।९चिं के।
१०गारा।