Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) ११८
१२. ।श्री हरि गोविंद जी दे सीतला निकली॥
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दोहरा: अति अुतसाह बिलोक कै, करमोण दिल दिलगीर।
नर नारिनि ते सुनति जस, मनहु रिदा दे चीर१ ॥१॥
पाधड़ी छंद: बजियंत पौर बाजे बिसाल।
सुनियंति श्रोन तबि है बिहाल।
बस चलहि नहीण संकट महान।
मन गिनति गटी -किम बिघन ठानि? ॥२॥
अुर सज़ल२ मोहि किम निकसि जाइ।
श्री हरि गोविंद जिम काल खाइ।
तबि अनद अुदहि, रिद करक होइ।
नतु म्रितक तुज़ल* हम जियनि जोइ३ ॥३॥
नित करति महां मंगल सु चार।
बहु दरब आइ भरि लिय भंडार।
लघु थान हमहु ते भे महान।
सुत भयो चंद समु लखि जहान४ ॥४॥मंगल करंति गंगा अनद।
श्री हरि गुबिंद जिस शोभ नद।
जबि बडो होइ सम बली सिंघ।
सभि को निवाइ संतोख सिंघ- ॥५॥
इम राति दिवस करती बिचार।
पति साथ दुखति बाकनि अुचारि।
किम नहीण चिंत चित मैण तुमार।
दीरघ शरीक नित है अुदार ॥६॥
इक पुज़त्र तिनहु किम दिहु खपाइ५।
गुरता बहोर हमरे सु आइ।
१चीर दिंदा है (गुरू दा जस)।
२तीर ।पंजाबी सज़ल = तीर, छेक, चोभ पीड़, ग़खम। संस: शर॥
*पा:-समान।
३साडा जीवंा मुरदे तुज़ल है।
४जहान जाणदा है।
५नाश कर दिओ।