Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 106 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १२१

बीति गए इसि रीत छि मास
अलोप भए, नहिण काहूं लखाई ॥१०॥
बुज़ढे* आदिक जे गुर के सिख
होति भए इकठे समुदाए।
श्री गुरु मूरति डीठ२ न आवति
सो भटकंति रिदे मुरझाए।
कीन बिचार भलो सभि हूं मिलि
आप गुरू बहु बार बताए।
-मेरो सरूप पिखो तन अंगद
भेद नहीण इक मेक बनाए ॥११॥
मोकहु सेवनि चाहति जो
गुर अंगद सेवहु प्रेम करे-।
बुज़ढे कहो निज थान सथापो है
तांहि सरीर मैण आप बरे३।
खोजहु कौन सथान अहैण
सुनि कै सिख केतिक ग्राम फिरे।
प्रेम ते चौणप बधी हित हेरनि
प्रेरन कीन प्रमोद धरे४ ॥१२॥
दोहरा: मिलि करि सभिनि बिचारिओ, -ग्राम खडूर मझार।
निकटि भिराई होहिणगे, अपर५ न सुनीए सार- ॥१३॥
सैया: बुज़ढे ते आदिक जे समुदाइ
गए सभि सिज़ख खडूर मझारी।
माई भिराई के पास मिले
सगरे कर जोरि नमो पग धारी।बूझन कीनि कहां गुर अंगद?
हेरन के हित चाहि हमारी।
है सफलो सभि को इति आवनि


१चाहिआ सी।
*पा:-बुज़ढि ति। बुज़ढे ते।
२नग़र।
३वड़े।
४अनद नाल प्रेरे (घज़ले) होए (भाई बुज़ढे दे)।
५होरथे।

Displaying Page 106 of 626 from Volume 1