Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) १२३

१५. ।बरछे नाल चशमा चलाअुणा॥
१४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>१६
दोहरा: पोशिश सूखम बसन की,
अधिक जि बनी नवीन।
नित पखारिबो होहि तिन,
पहिरहि गुरू प्रभीन ॥१॥
सैया: पीत दुकूल१ धरे दुति मूल
तुरंग अरूढति आप सिधारे।
जाति बजारनि बीच प्रभू
नर नारि चहूंदिशि बंदन धारे।चंचल चारु चलाइ फंदावति
शोभति हय इस भांति अुदारे।
संझ समैण घन जोण चढि मोर पै
जाति नचावत मारग* सारे२ ॥२॥
आइ गयो धुबीआ३ अगवाइ,
दुअू कर जोरति एव बखाना।
रावर के नित चीर पखारति,
सो तन धारति हो हित ठाना४।
आए बरात समेत इहां
मलहीन५ सु नीर नहीण किस थाना।
हेरि फिरो चहूं ओर भले,
नहि प्रापति भा चित चिंत महाना ॥३॥
पोशिश नीत अुतारति हो,
इकठी मम तीर६ भई समुदाई।
आप करो अबि आइसु जाण बिधि,
तोण करिहौण पट हेतु अुपाई।

१दुपज़टा, बसत्र।
*पा:-भावति।
२जिवेण त्रिकालां समेण बदल चड़्हे ते मोर (नचदा है) तिवेण राह विच नचांवदे जाणदे हन (घोड़ा) सारे
जंे।
३धोबी।
४भाव जिन्हां ळ तुसीण खुशी नाल पहिरदे हो।
५मैल तोण बिनां, निरमल।
६मेरे पास।

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