Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १२८

१०. ।गुरू जी दी नित क्रिया। सिज़धां दा मेल ते हुमायू दा आअुणा॥
९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>११
दोहरा: निताप्रज़ति श्री सतिगुरू,
इह बिधि करति अुचार*।
सुनति अुचारति सिज़ख को,
भअुजल करि हैण पार ॥१॥
चौपई: जाम जामनी जाग्रन होइ।
सिहजा तजहिण सैन की१ जोइ।
करहिण सौच, पुन धोवहिण पावन२।
पावन होन+, करहिण रदधावन३ ॥२॥
बहुर बदन अरबिंद पखारैण।
सीतल नीर शनान सुधारैण।
निज अनद मैण निशचल होइ।लगि समाधि निरविकलप जोइ ॥३॥
भई प्राति सूरज जबि निकसहि।
कमल बिलोचन सुंदर बिकसहिण।
प्रथम द्रिशटि जिस पर तबि परै।
रोगी रोग दुखी दुख हरै ॥४॥
आधि बाधि बाधा जो पावै।
जानि समो आगे चलि आवै।
बाकुल होहि पीर ते जेई।
द्रिशटि परे सुख पावै तेई ॥५॥
भई जगत मैण बिदत सु बाती४।
आइ अनेक खरे हुइण प्राती।
संकट नशटहि, सदन सिधारहिण।


*इथे पाठ आचार ठीक जापदा है किअुणकि अगली तुक विच दसदे हन कि गुरू कीआण इन्हां
करनीआण दी कथा जो सिज़ख सुणदा ते करदा है अुसळ आप भअुजल तों पार करनगे। फिर चौपई
तों गुरू जी दी नित क्रिया अरंभदे हन। पर लिखती दे छापे दे नुसखिआण विच पाठ-अुचार-ही
दिज़ता है।
१सौं दी।
२भाव हज़थ पैर।
+पा:-होइ।
३दंदां ळ साफ करना (दातं करना)।
४वारता।

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