Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) १२९
१८. ।घर विच विचार ते गुरू जी दा अुपदेश॥
१७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>१९दोहरा: इस प्रकार जबि सतिगुरू,
मज़खं को बहु बारि।
धीरमज़ल की वसतु सभि,
फेरहु करति अुचारि ॥१॥
चौपई: मात नानकी तबि चलि आई।
जिस के रिदे अधिक रिस छाई।
-धीरमल कीनसि अपराधू।
तिस को हित चहि पुन इह साधू ॥२॥
जोग दंड को शज़त्र बिसाला।
जाला बमणी१ हति तिस काला।
प्रान हानि लगि कीनि खुटाई।
हम घर की सभि बसतु लुटाई- ॥३॥
इम असमंजस लखि करि आई।
मज़खन सहित अुठे अगुवाई।
हाथ जोरि पद बंदन ठानी।
बैठी माता परम सु सानी ॥४॥
श्री गुर पिखि कै तूशनि रहे।
अपर भि नहीण बाक किसि२ कहे।
दीरघ सीतल सासनि लीनसि।
जल परपुलत३ बिलोचन कीनसि ॥५॥
भो मज़खं सिख! सुनीअहि बाती।
मम सुत सदा रहित इह भांती।
भए पंच भ्राता बर बीर।
छज़त्री धरम बिखै धरि धीर ॥६॥
बडो भ्रात गुरदिज़ता भयो।
सभि ते लघु मम सुत जनमयो।नहि बिवहार रुचहि जिस कोई।
१बंदूक।
२किसे ने।
३भरे होए।