Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९)१३१

१७. ।दाराशकोह ळ अुपदेश॥
१६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ९ अगला अंसू>>१८
दोहरा: श्री सतिगुर हरि राइ जी,
भुगति मुकति दे दान।
रिदा शुज़ध देखनि करो,
दारशकोहु सुजान ॥१॥
चौपई: तुरकेशुर* के बंस मझारे।
शुभ मति अुपजो गुन बीचारे१।
मरू२ देश जिम सुरतरु होवा।
जिम काकनि के कोकिल जोवा३ ॥२॥
बकनि बंस कलहंस४ अुपंना।
५को खुदाइ दरवश प्रसना।
परमारथ महि सुमति लगाई।
जनम मरन की खै दुचिताई६ ॥३॥
बिखै बाशना दुरमति नाशी।
करी निकंद७ शर्हा गर फासी।
अुज़तम पंथ चलिनि चित चहो।
पूरब बडभागनि ते लहो ॥४॥
भोगनि राज समाज बिसाल।
इसत्री आदि बिशनि जंजाल।
नाशवंत इह केतिक दिन के।
छिन भंगर जिम ओसनि कनके८ ॥५॥
फसि फसि इन महि कशट लहंते।
सज़तनाम कअु नहि सिमरंते।*पा:-तुरकेशनि।
१(इह) गुण वाला विचारिआ।
(अ) (तत मिज़थिआ दे) विचार (आदि) गुण जिस विच हन।
२रेतले।
३कावाण दे जिवेण कोइल देखीदी है।
४राज हंस। (अ) सुंदर हंस।
५किसे खुदा दे दरवेश ने प्रशन (होके) प्रमारथ विच.......।
६दुबिधा या चिंता दूर कीती।
७नाश कीती।
८त्रेल दे तुपके।

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