Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १३४

गली१ जोगु न होई ॥
एक द्रिसटि२ करि समसरि जाणै जोगी कहीऐ सोई ॥१॥ रहाअु ॥
जोगु न बाहरि मड़ी मसांी जोगु न ताड़ी३ लाईऐ ॥
जोगु न देसि दिसंतरि भविऐ जोगु न तीरथि नाईऐ ॥
अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति इव पाईऐ ॥२॥
सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु वरजि४ रहाईऐ५ ॥
निझरु झरै६ सहज धुनि लागै घर ही परचा७ पाईऐ ॥
अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोगजुगति इव पाईऐ ॥३॥
नानक जीवतिआ मरि रहीऐ ऐसा जोगु कमाईऐ ॥
वाजे बाझहु सिंी वाजै तअु निरभअु पदु पाईऐ ॥
अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति तअु पाईऐ ॥४॥१॥८॥
चौपई: सुनहु नाथ! हमरा इह जोग।
पाइ प्रमातम जाइ वियोग।
सहज जोग संतनि मति ऐसे।
संसै भरम न कीजै कैसे ॥३५॥
स्री मुखवाक:
सलोकु म २ ॥ दीखिआ आखि बुझाइआ सिफती सचि समेअु ॥
तिन कअु किआ अुपदेसीऐ जिन गुरु नानक देअु ॥१॥
चौपई: इमि सुनि सिज़ध भए सु प्रसंन।
श्री नानक तुम रूप सु धंन।
अुचित८ जानि तुम को दई गादी।
सिज़ख अुधारहु करि अहिलादी ॥३६॥
करि आदेशु अदेश चले हैण।
अुज़तर ले करि कहति -भलै हैण।
श्री नानक कलिजुग महिण भारे।
धरि अवतार अधिक नर तारे- ॥३७॥
मारग सकल सराहति९ गए।


१गज़लां करन नाल।
२नग़र।
३समाधी।
४दौड़ रहे (मन ळ)।
५रोकी रज़खीए।
६इक रस झड़दा है(ब्रहमा नद)।
७अुपदेश (अ) विशेख गिआन, मेल, ।संस: परिचय॥।
८योग।
९सलाहुंदे।

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