Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) १३३१६. ।बरात वापस। चोरी हो गई थैली दज़सी॥
१५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>१७
दोहरा: गुजरी रिदै प्रमोद धरि,
चहूं कोद१ गन नारि।
तागि सदन निज पौर को,
मिली आइ अगवार ॥१॥
चौपई: बडे गुरनि२ जहि थान सुहावन।
चाहति हैण तहि माथ टिकावनि।
कहि करि प्रेरो अुत को डेरा।
दूलहु सहित चले तित ओरा ॥२॥
बहुत बरात चली पशचाता।
हेतु मनावनि के सुखदाता।
मोदक थार लाइ समुदाए।
जाइ अज़ग्र दरबार टिकाए ॥३॥
कलीधर अुतरे ततकाला।
दुलहन संग मिली गन बाला।
पहुचे श्री दरबार अगारी।
खरे होइ अरदास अुचारी ॥४॥
चार पंच गुर के ले नामू३।
बोलहु वाहिगुरू सुखधामू।
पान ग्रहनि४ कलीधर होवा।
आनि आप को दरशन जोवा ॥५॥
अंग संग नित रहहु सहाइक।
मंगल दाइक सहिज सुभाइक।
बंस ब्रिधाइक५ सभि जगनाइक।
सदा बिघन के ओघन घाइक६ ॥६॥
इज़तादिक कहि बिनै महानी।१चुफेरे।
२वडे गुराण दा।
३चार ते पंज = नौण गुरू साहिबाण दे।
४विवाह।
५दे वधावं वाले।
६समूह बिघनां दे नाशक।