Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) १३४

१७. ।सुलही चड़्हके आइआ॥
१६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>१८
दोहरा: चितवति कारज अनिक को, सुलही चहति पान।
गमनो शाह समीप तबि, तसलीमात बखान ॥१॥
चौपई: जबि अवकाश कहनि को पायो।
तबि सुलही कर जोरि अलायो।
माझे देश चहति मैण गयो।
कछू कार तहि अफतर१ भयो* ॥२॥
श्री अरजन जग गुरू कहावै।
कहि लोकनि को सो बिगरावै।
देश मामला देति बिगारे।
नर हग़ार ही तिस अनुसारे ॥३॥
बिगरो सरब जाइ सुधराअूण२।
दे करि जोर आप मैण लाअूण।
मो बिन गए दरब नहि आवै।
अपर न बुधि बलकरि को लावैण ॥४॥
सुनति शाहु कीनसि फुरमान।
जाइ करो धन काज महान।
तूरनि ही हटि करि इत आवहु।
सैन संग ले करि चढि जावहु ॥५॥
सुलही लई शाहु की आइसु।
हरखति अुर निज घर को आइ सु।
करि बिचार चंदू ढिग गयो।
मिलि सलाम करि बैठति भयो ॥६॥
सुनहु दिवान बाक अस मोरा।
एक काज भा मम अरु तोरा।
जिनहि हटावनि कीनसि नाता।
सो मेरो बैरी बज़खाता ॥७॥
मैण अबि जाति गहौण कै मारौण।


१अबतर = राब।
*पा:-अफरती।
२सधाराण।

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