Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) १४९

२१. ।मज़खं ते गुरू जी स्री अंम्रितसर पुज़जे॥
२०ॴॴपिछलाअंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>२२
दोहरा: ग्राम बकाले के बिखै, होई जबहि प्रभाति।
धीरमज़ल कौ सिवर पिखि१, परो छूछ, गा रात२ ॥१॥
चौपई: सभिहिनि पेखो अुठि सो+ गयो।
-नहि रहि सको खोट जिन कयो।
निज प्राननि मैण संसे जाना।
जिस ने क्रर करम इत ठाना ॥२॥
कैसे चरन टिकहि तिस केरे।
बड अपराध कीनि सभि हेरे।
त्रसति करति भा संसे प्रान।
सम काइर के धीर धरा न- ॥३॥
इस प्रकार तहि मज़खं शाह।
रहो गुरू ढिग प्रेम अुमाह।
दरशन दरसहि परसहि चरन।
हरो चहै दुख जनम रु मरन ॥४॥
नित प्रति शरधा अधिक बधावहि।
श्री मुख बाक सुनहि सुख पावहि।
श्री गुर भगति गान अुपदेशहि।
कटति कलेश अशेश हमेशहि ॥५॥
इक दिन मज़खंशाह बखाना।
श्री गुरदेव अनद निधाना!
गुर अरजन जी रचो सुधासर।
तिन के पित अुपदेशो जो कर३ ॥६॥
तहां जानि की है मम चाहू।
मज़जन करोण कलुख गन दाहू।
भलो परब अबि पहुचो आनि।
भयो बिसाखी कोइशनान ॥७॥
दरशन दरसौण श्री गुरु धाम।

१वेखिआ।
२रात ळ तुर गिआ है (धीरमज़ल)।
+पा:-निस खिस।
३जिवेण करन लई भाव रचं लई तिन्हां ळ पिता ने अुपदेशिआ सी।

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