Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) १५०

२१. ।गुरबाणी महिमां। सिज़खी जहाग़ फुटिआ दा वाक॥
२०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>२२
दोहरा: श्री सतिगुर हरिराइ जी इस बिधि समां बिताइ।
सिखनि को सुख देति हैण दुशटनि दुख समुदाइ ॥१॥
चौपई: एक दोस महि क्रिपा निधाना।
बैठे रुचिर प्रयंक महाना।
समोण अराम करन को जाने।
पौढि गए सुपते सुख साने ॥२॥
सूखम बसत्र अूपरे ताना।
कुछ सिख हुते अलप तिस थाना।
कितिक समो जबि एव बिताए।
किसू देश ते दुइ सिख आए ॥३॥
अुर शरधा धरि शबद सु गावति।
बहुत प्रेम सुनिबे अुपजावति।
सुंदर सुर ते राग बसावैण।गन संगति को गाइ रिझावैण ॥४॥
दरशन हित आए दरबार।
सुपते जानैण गुरू अुदार।
अुर मैण करैण बिचार बिसाला।
-गावहि शबद कि नहि इस काला ॥५॥
सुधि धुनि जागहि कोपहि नांही।
हमरी निद्रा इनु अुचटाही-।
कहहि परसपर सतिगुर सदा।
तुरी अवसथा महि जद कदा ॥६॥
तीन अवसथा साखी रूप१।
जोण जल कमल अलेप अनूप।
सुनि हरि सिमरन आनद धरैण।
हम हर खुशी आपनी करैण ॥७॥
इम बिचार करि गावन लागे।
सुर२ सुंदर ते अुर अनुरागे।


१दे प्रकाशक रूप हन।
२अवाग़।

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