Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १५४

महां तपति ते सलिता मांही।
जाइ प्रवेशहि सुख बहु* पाही१ ॥१८॥
तिमि जग जलति देखि करि तागे।
मिलि सतिसंगत सेवा लागे।
सकल बिकारनि तपत बिनाशे+।
सीतलता गुर शबद प्रकाशे ॥१९॥
गुरबाणी को करति बिचारनि।
गान सीत लहि मोह निवारन२।
सुनि करि गुर अुपदेश किदारी।
द्रिड़ कीनसि अुर बहु निरधारी ॥२०॥
दीपा अपर नराइं दास।
बूले सहित आइ गुर पास।
बंदन करि भाखी अरदासु।
जनम मरण दुख देहु बिनाशु ॥२१॥श्री अंगद अुपदेश बतायो।
करहु भगति जे इमि अुर भायो।
कहिन लगे हम भगति न जानहिण।
किम सरूप कैसे करि ठानहिण ॥२२॥
श्री गुर बरनन कीन सिखाई३।
ब्रहम सवल माया जग जाई४।
हुकम प्रमेशुर को तिन पायो५।
अपने महिण सभि जग भरमायो ॥२३॥
बहुर प्रभू ने चतर अुपाए६।
जिन ते मिलहि मोहि कहु७ आए।
इक बैराग जोग अरु गान।

*पा:-बल।
१बड़ा पाअुणदा है।
+पा:-सकल विकार निताप्रति नासे।
२गिआन दी ठढ प्रापत हुंदी है ते मोह (दी तपत) दूर हो जाणदी है।
३सिज़खा।
४माइआ सबल ब्रहम ने जग अुतपति कीता।
५तिस (माइआ) ने।
६चार (भाव चार साधन मुकती दे)।
७मैळ (भाव परमेशुर ळ)।

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