Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २९
निकंदन = दूर करन वाला। कंद = फल (अ) बज़दल, मेघ।
अरथ: (जिन्हां दा) अुपदेश सुणन नाल (परमपद वल जाणदिआण) रोक नहीण पैणदी
(अते जिस अुपदेश दे) ह्रिदे विच वस जाण नाल खुशी (प्रापति) हुंदी है।
(अुह श्री) फेरू जी दे सपुज़त्र (सभ तर्हां) सुतंतर हन, (मरतबे दे) अुज़चे हन, नैंां
दी सुंदरता जिन्हां दी कमलां तोण स्रेशट है।
(किअुणकि जिधर अुह नैं तकदे हन) रता भर बी मंदिआई ते विकार नहीण रहि
जाणदे (ते) अगान (ऐअुण दूर हुंदा है) जिवेण सारा हनेरा सूरज (दरशन
नाल) दूर हो जाणदा है।
श्री गुरू अंगद चंद जी आनद दे मेघ ते मुकती दे दाता (हन अुन्हां ळ) नमसकार
करके सदा भजो।
भाव: सतिगुर अंगद देव जी दे नैंां दी सुंदरता अुन्हां दीक्रिपा द्रिशटी दी
तासीर, अुन्हां दे अुपदेश दा प्रभाव, दिआलू, मुकती दाता, अगान दूर
करन दी समरज़था वाले होण दी महिणमा है।
होर अरथ: इस छंद विच कई तुकाण दा होर अरथ बी करदे हन:-
-१. बंद ना होत सुणे अुपदेश = जिन्हां दे अुपदेश सुणन तोण बंद = बंध-नहीण
हुंदी भाव पुनर जनम नहीण हुंदा (अते) जिन्हां दे रिदे अुपदेश बस जाए
(जगत अुन्हां ळ) नमसकार करदा है (भाव अुह संगत दे पूज हो जाणदे हन)।
दूसरी तूक दा पिछला अज़ध नैंां दी सुंदरता कमलां (वरगी है)।
५. इश गुरू-श्री गुरू अमरदेव जी-मंगल।
छपय: अमल अलणब करि जाणहि
समर जै पावहिण अरि हरि।
हरि नित लावहि धान
गान पावहिण मुनि अुर धरि।
धरन भजन बिदताइ
सभिनि महिण बापो समसर।
शरन दास गति लहति
दहति दुख दोखिन को दरि।
दर देति बताइ सु मुकति को
होहिण प्रसीदति चित सिमर।
मर जनमन को संकट कटति
जै जै जै श्री गुर अमर ॥१०॥
अमर = जो ना मरे। देवता। देवते।
अलब करि = आसरा बणाके। आसरालैके।
समर = जंग, जुज़ध। देवतिआण दी राखशां पर जै तदोण हुंदी रही है जदोण रज़ब
जी दा आश्रा मिलदा रिहा है।