Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) २७

त्रै सुत अुपजे तां के धाम ॥७॥
पिखि संगति को हुकम बखाना।
-आनहु घर ते प्रात महाना१।
तिस महि सिज़खन चरन पखारैण।
गमने मग को श्रम निरवारैण२- ॥८॥
सुनति दास घर अंतर गयो।
तिस बासन को जाचति भयो।
हुती सु ग्रीखम रुत तिस काला।
जल भरि राखी प्रात बिसाला ॥९॥
त्रै नानू सुत बीच बिठाए।
तिन की जननी मसलि नुहाए३।
कहो दास को -प्रात मझारी।
पुज़त्र शनानोण निरमल बारी ॥१०॥
नहि छूछी, जे लै करि जाए।
निज सुत सीतल करोण नहाए-।
सुनि करि दास बतावनि कीन।
तबि भाईगरबति तिस चीन४ ॥११॥
-बेमुखता गुर ते इन धारी।
पुज़त्रनि हित बोलति हंकारी।
तौ बालक म्रितु पाइ सिधै हैण।
इहां परात परी रहि जै है ॥१२॥
सतिसंगति ते सुत शुभ जाने।
तिन की होइ आरबल हाने-।
इम भाई बहिलो के कहे।
तीनहु पौत्रे मरि करि रहे ॥१३॥
तिन को पित नानू दुख पाए।
पुज़त्र नेह ते शोक अुपाए।
लगो पिता की सेवा करन।


१वज़डी परात।
२सिज़ख पैणडा टुरके आए हन, (इन्हां) दे तिस (परात) विच चरन (रज़खके) धोईए जो थकेवाण
अुतरे।
३मलके नुहाअुणदी सी तिंनां पुज़तां ळ विच बिठाके।
४भाव तिस नूह ळ हंकार विच जाणिआ (ते आखिआ)।

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