Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि१) १५६
दूसर ब्रहम लोक१ लौ सारे।
बाइस बिशटा सम निरधारे२।
रिदे वाशना कोणहुं न धरै।
सुपनि समान जानि परहरै ॥३१॥
पाइ पदारथ परालबध ते।
भोगति हैण, पर मन नहिण बंध ते३।
निज सरूप दिशि ब्रिती लगावैण।
बिशय बाशना ते अुलटावैण ॥३२॥
तथा जोग भी दोइ प्रकार।
इक तौ कशट जोग अुरधारि।
यम, नेमादि अशट हैण अंग।
सकल कहे बहु वधे प्रसंग* ॥३३॥
दूसर रूप सुनहु तिस भेत।
रोक वाशना ते मन लेति।
सतिगुर शबद सदीव बिचारै।
जीव ब्रहम इकता निरधारै ॥३४॥
आतम बिखै जुटी ब्रित रहै।
स्रेशट परम जोग इह कहै।
वासतव४ निज सरूप को जानै।
इस को गानी गान बखानै ॥३५॥
चअुथी भगति रूप सुनि लेहु।
कली काल इह मुज़ख लखेहु५।
वाहिगुरू कीजहि निज सामी।
सकल शकति युति अंतरजामी ॥३६॥
आप बनहि दारा प्रभु केरी।
पतीब्रता की रीति बडेरी।
तन मन धन सभि अरपहि पतिकौ।
१ब्रहमां दा लोक।
२भाव काण दे विशटा तुज़ल जाणे।
३मन करके बंधाइमान नहीण हुंदे।
*श्री गुर नानक प्रकाश विच सारा दज़स आए हन, देखो पूरबारध अधाय ४८।
४यथारथ।
५स्रेशट जाणोण।