Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) १५६

२१. ।रात दा जंग॥
२०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>२२
दोहरा: लिए बाहनी लरति भा,
लखू बीर बिसाल।
जित दिश आवहि टोल रिपु,
हनहि तुफंग कराल ॥१॥
भुजंत प्रयात छंद: नहीण नेक ढूके कुपो खान काला।
सु अुचे अुचारो कठोरं बिसाला।
कहां त्रास धारो खरे देर लावो?
करो कोण न हेला सु आपा बचावो ॥२॥
गुरू सैन थोरी जथा लौन आटा।
परो एक बारी असी१ काढि काटा।
चढै सूर जौ लौ२, फते लहु पाई।
जबै क्रोध कै खान, बानी सुनाई ॥३॥
हुते बीर सैनापती ओज धारे।
चमूं सोण कहो क्रर ठांढे निहारे।
चलो कोण न आगे करहु प्रान पारे।
परो शाह को काज कीजै सुधारे ॥४॥
सुनीखान कान जु बीसै हग़ारा।
दल चालि आगे चहो जंग भारा।
हकं हाक बाजी३, तुरंगं धवाए।
करैण तार हाथैण तुफंगैण अुठाए ॥५॥
हला हाल बोलैण धकाधज़क होए।
अंधेरा महां धूर दीखे न कोए।
गिरे बीर केते मरे सो अटंके।
परे अूपरे ना अुठे है अतंके४ ॥६॥
संभारैण किते हाथ डारी तुफंगैण।
किते छूटि कै छूछ दौरे तुरंगै।
बिना मार कीने मरे शज़त्र केते।

१तलवाराण।
२जदोण ळ सूरज चड़्हना है।
३घोड़े हिज़कं दी वाज (अ) हाक ते हाक।
४डर करके।

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