Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १५९
श्री गुर तरे प्रयंक१ निहारा।
-तरे न बैठौण- इम जिय धारा ॥७॥
जाइ सिर्हाने कीदिश बैठा।
सरदारी के मान अमैठा२।
मूरख नहिण जानी बडिआई।
-मैण सरदार- लखहि गरबाई३ ॥८॥
श्री गुर पिखि तूशन ही ठानी।
मेली जानि न कछू बखानी।
बैठि घरी, घर गमनो मूढ।
महिमा लखी न गुन गन गूढ ॥९॥
पीछे सिज़खन गुरु संगि कहो।
इहु तो अति मूरख ही लहो।
अुचित अवनि पर बैठनि इहां।
पुन न पंघूरे की दिश लहा४ ॥१०॥
बरजति बरजति५ जाइ सिराने।
बैठो, कुछ न अदाइब६ जाने।
सुनि श्री अंगद सहिज सुभाइ*।
बाक बखानो सभिनि सुनाइ ॥११॥
पलणघ पंघूरा कछू न रहो।
अबि ते इन को सभि किछु दहो७।
करनि बिअदबी बडिअनि केरी।
नाश देति करि बडिहुण बडेरी ॥१२॥
बडिअनि कौ ठानहिण सनमाना।
सो जानहु इहु होइ महाना।
तबि ते घटति घटति घटि गए।
१पलघ।
२नाल आकड़िआ।
३हंकार करके समझिआ कि मैण सरदार हां।
४पघूंड़े वज़ल ना डिज़ठो सु।
५वरजदिआण, रोकदिआण।
६अदब।
*इस दा मतलब है कि स्राप वाणू ुज़सेविच आके नहीण किहा, सहिज सुभा बेअदबी दा फल जो
मिलंा है सो दज़सिआ, वाहिगुरू अपणे दी बेअदबी नहीण सहारदा।
७दाह हो जाएगा।