Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) १५९
२१. ।पठां फतेशाह ळ जा मिले॥
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दोहरा: इम देनो बहु दरब को,
सतिगुर कीनि बखान।
समझाए बहु भांति करि,
अपजसु सुजसु महान ॥१॥
चौपई: तअु न धीर मूढनि कौ आई।
लखहि जंग को -म्रितु नियराई-।
तीनहु मुखि मुख धरी रुखाई१।
सभा बिखै बोले कदराई२ ॥२॥
निज सगियनि ते जो टुटि गयो।
बहु धन पाइ कहां करि लयो।
दरब बटोरनि जिन हित करनो।
तिन सोण भयो प्रेम सभि हरनो ॥३॥
बने रहहि जे सगियन३ संग।बिनां दरब ही सभि सुख रंग।
कोण हूं रहो जाइ अबि नांही।
दिहु रुखसद निज घर को जाहीण ॥४॥
सुनि मातुल क्रिपाल रिस भरो।
झिरकति खाननि बाक अुचरो।
कोण मूढहु तुम करहु बहाना।
रिपु गन जाने मन डर माना ॥५॥
गुर को लवं खाइ बनि खोटे।
मुचहु हराम होइ मति मोटे४!
प्रभु जी! नहि इन पाछा करीअहि।
-गमहु मलेछहु दूर- अुचरीअहि ॥६॥
घर ते निकसे आयुध धारे।
रण को देखि डरे -हम मारे-।
करो पठान बंस निरलाजा।
१तिंनां मुखीआण ने मूंह दा रुज़खा पन धारिआ।
२काइरपने नाल।
३संबंधीआण।
४छडदे हो लूं हरामी होके हे मोटी मत वालो (मूरखो)।