Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १६५

तब तसकर तन दीन जलाइ ॥४५॥
सुर पुरि१ ते बिबान चलि आवा।
सादर कहि कै तुरत चढावा।
सुख अनत महिण जाइ रहो है।
गुर बच ते अघ देहि२ दहो है ॥४६॥
लोभ धारि सिख गमनो घर को।
गहो नरन तिस लखि तसकर को३।
कोटवार४के करो अगारी।
तिन देखति ही गिरा अुचारी ॥४७॥
छीन लेहु तिस को सभि माल।
फांसी देहु जाइ ततकाल।
हुकम मानि फांसी तिस दीना।
मूरख मरो धरम ते हीना ॥४८॥
गुरू बचन पर जिह परतीति।
तिसहि मिलहि अूचो पद नीति।
तजहि बाक धरि लोभ बिसाला।
पावहि नरक तुरत हुइ काला५ ॥४९॥
दोहरा: गुरू संत ते लाभ तिह, गुरमुख द्रिड़ मति जोइ।
मनमुख चंचल सिज़ख को, सिज़खी अुलटी होइ ॥५०॥
महिमा सतिगुर बचन की, देखहु पुंन प्रमान६।
बिमुख भयो सिख फांस तिस, तसकर सरग महान ॥५१॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम रासे सिज़ख तसकर प्रसंग
बरनन नाम त्रौदशमोण अंसू ॥१३॥


१देवतिआण दी पुरी।
२पापी देह।
३कोई चोर जाण के।
४कोतवाल।
५मौत।
६भाव प्रतज़ख।

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