Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४)१६५
२२. ।दुनीचंद ने डर जाणा॥
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दोहरा: लरति चुगिरदे मोरचे१,
अुठनि लगे जिस काल।
जालाबमणी खालसे कसि,
कसि तजी अुताल ॥१॥
चौपई: तजि तजि मुरचा भाजे जोण जोण।
कसि कसि तुपक प्रहारैण तोण तोण।
लगि लगि गुलकाण घायल होए।
घाव कुथाइ कितिक मरि सोए ॥२॥
पहुचहि सिंघ लुटहि हज़थारहि।
जियति मिलहि कटीआ करि डारहि।
गई गुरू ढिग सुधि तबि सारी।
तजि तजि मुरचे जाति पहारी ॥३॥
बडे मोरचे हैण जिस थाना।
तहि तहि थिरे बने सवधाना।
घेरा दयो पुरी को छोरि।
घाल लोहगड़ ओरहि२ ग़ोर ॥४॥
इतने महि गोप जु हलकारा३।
गुर ढिग आइ ब्रितंत अुचारा।
प्रभु जी! अहै वहिर सुधि जैसी।
सुनी पिखी मैण कहि हौण तैसी ॥५॥
राति मोरचा मारो जबै।
भीमचंद दुख झूरो तबै।राजे सकल हकारि सकेले।
समेण रसोई के जबि मेले४ ॥६॥
सभि महि कहो मनोरथ आपनि।
लशकर होइ बिलद बिखापन५।
१मोरचिआण तोण।
२तरफ।
३सूंहीआण।
४करने होए।
५नाश हुंदा है (साडा) ।वि+खापन = बहुत खपदा है॥।