Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) १६९
२४. ।श्री गुरू ग्रंथ जी जल विच रज़खे॥
२३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>२५
दोहरा: ठांढे तरी प्रतीखते, पिखति पाछलो साथ।
-आइ मिलहि इकठे सकल-, अुलघति को चहि नाथ ॥१॥
चौपई: अलप वसतु कुछ सदन मझारी१।
धीरमज़ल को दीनसि सारी२।
लघु तुरगनि पर धरि सो लाए।
सने सने गुर ढिग चलि आए ॥२॥
केतिक सिज़ख फकीर कितेक।
मिल संगी भे जलधि बिबेक३।
आइ आइ गुर ढिग हुइ ठांढे।शरधालू प्रेमी मन गाढे ॥३॥
इतने महि सिख सो चलि आयो।
गुरू ग्रिंथ जिन सीस अुठायो।
देखति गुर अर सिख तिस ओर।
बंदन करी सकल कर जोरि ॥४॥
तेग बहादर गुरू बखानयो।
कौन ग्रिंथ साहिब इह आनो।
कित ले जाइ४, अहै किस पास?
बूझहु इस को, करहु प्रकाश५ ॥५॥
तबि क्रिपाल गुजरी को भ्रात।
सरब सुनाइ भनो सु ब्रितांत।
श्री गुर अरजन प्रथम लिखायो।
धीरमज़ल सो छल करि पायो ॥६॥
डेरा लूट लीनि जबि सारे।
तबि ते आयहु सदन हमारे।
महां महातम है इस केरा।
जिस के दरशन पुंन घनेरा ॥७॥
१भाव थोड़ा कुछ ही घर विज़च सी।
२(आप) दे दिज़ती सी।
३गुरू जी दे नाल हो गए।
४किथे लै जा रिहा है।
५भाव (साळ) दज़सो।