Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) १७४
बसहि तहां जहि भावति मन को।
तबि डज़ला दोनहु ढिग गयो।
हाथ जोरि करि बोलति भयो ॥२९॥
चलहु मात जी! दुरग कि अंतर।
थिरहु भले सुख लहहु निरंतर।
मोर कुटंब सकल कर जोरहि।
सभि बिधि सेवहि चरन निहोरहि ॥३०॥
जनम सफल हम सभि को करीअहि।
अंतर अुतरहु भले बिचरीअहि।
दोनहु सुनि भाखो पिखि खलो१।प्रभु के पगन बिखै ही भलो ॥३१॥
चरन सरोजन बिछर न चाहति।
बहु दिन ते हम पिखिनि अुमाहति।
कितिक फरक करि सिवर अुतारा।
तंबू तनो कनात मझारा ॥३२॥
सुत शोकारति सुंदरी सुंदर२।
साहिब देवी जुति थिर अंदर।
डज़ला करि अहार बिधि नाना।
थार पुचावहि प्रीत महाना ॥३३॥
पंच दिवस इस भांति बिताए।
अंतर दे बनै सभि खाए।
दिवस खशटमे प्रभु फुरमायो।
दे थान लिहु वहिर बनायो ॥३४॥
पुन डज़ले को किय समुझावन।
लगर बनहि निकट हम खावन।
घनो भाअु हम ने तुव देखा।
सभि बिधि कीनी सेव विशेखा ॥३५॥
सुनि डज़ले कर जोरि अुचारा।
मोहि कुटंब समाजहि सारा।
दुरग, धेनु, हय, महिखि, अुदारा।
१खड़ोता देखके।
२(माता) सुंदरी जी सुंदर पुज़तराण दे (वियोग) शोक नाल दुखी हन।