Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) १७५

कूंन्हा जंड ब्रिज़छ लटकायो।
लग लोवाण१ अति ही सितलायो।
अुचित आप के पानी जाना।
भए त्रिखातुर करो न पाना ॥४८॥
गहि रकाब सतिगुरू अुतारे।
तन को बसन प्रिथी पर डारे।हाथ जोरि अूपर बैठाए।
पातनि कौ डोना२ करि लाए ॥४९॥
तबि रूपे जल तरे अुतारा।
भरि डोना साधू कर धारा।
श्री हरिगोविंद को पकरायो।
करो पान३, पुन बाक अलायो ॥५०॥
जल ऐसो कबि पीयो न आगे।
किनहूं न दीनसि करि अनुरागे।
अधिक त्रिखा करि पान५ मिटाई।
अबि तुम पियहु जियहु सुखदाई ॥५१॥
हिम अरु शोरे महि धरि राखा।
अति सीतल करिबे अभिलाखा४।
इस जल सम हम कबहूं न पियो।
बरंबार सराहनि कियो ॥५२॥
पिता पुज़त्र गुर आइसु पाई।
करो पानि जल त्रिखा मिटाई।
हरखति पौन करनि पुन लागे।
पूरब जनम पुंन जिन जागे ॥५३॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे सपतम रासे साधू रूपे प्रसंग बरनन
नाम अुनीसमो अंसू ॥१९॥

१लोआण लग के।
२पज़तिआण दा डूंना।
३पी करके।
४अति ठढा करने दी इज़छा नाल मानोण शोरे विच कि बरफ विच रज़खके (ठारिआ है)। (अ) डाढा
ठढाकरने दी इज़छा नाल बरफ विच शोरा रलाके विच पांी रज़खके (ठढा कीता होइआ पांी तां
अज़गे असां पीता है, पर.......)
नोटअुस समेण पोह विच रात ळ सफालीआ विच पांी जमाके खातिआण विच कज़ठा करके दज़ब छज़डदे
सन ते अुन्हाल विच पांी ठारन ते कुलफीआण जमाअुण लई वरतदे सन।

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