Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १७८

इमि धीरज दे करि भले, चलि गई अगारे।
पिता साथ हित करि मिली, बड शरधा धारे।
घर अंतर बैठी निकट, गुरु अंतरजामी।
कहो बुलायो तुझ नहीण, आई किस कामी? ॥२२॥
बनहि न आवनि बिन भने, कोण चलि करि आए?
जिनहु१ संग आनो हुतो, तिस कोण नहिण लाए।
कहो जोरि कर जाइ मैण, आनहुण अबि पासा।
आइसु२ बिनु नहिण मिलि सकहिण, बहु धरे हुलासा३ ॥२३॥
गई आप ही अुठि बहुर, तिस जाइ हकारा।
रिदे अनद बिलदधरि, पहुंचो दरबारा।
दरशन कीनसि जाइ कै, मुख कमल बिकाशा४।
राग दैश सुख दुख बिखै, ब्रिति जिनहु* अुदासा ॥२४॥
लखि संसार संबंध के, हुइ सतिगुर ठांढे।
गल मिलिबे कहु तार भे, पट ते कर काढे५।
चरन गहे श्री अमर तबि, बंदन को ठानी।
अुचित नहीण६ गर मिलन के, लिहु दास पछानी ॥२५॥
कुशल छेम७ सभि पूछ कै, निज निकट बिठायो।
अपर बात कुछ जगत की, बूझति हरखायो८।
कितिक समो बीतो जबहि, बैठे गुर पासू।
आइ रसोईआ थिति भयो, कीनसि अरदासू ॥२६॥
प्रभु जी! सिज़ध९ अहार हहि सुनि अुठे क्रिपाला।
बुज़ढे आदिक सिज़ख सभि, आए तिस काला।
पंकति बैठी मिलि तबहि, गुर बीच सुहाए।
मिलि संगति महिण अमर जी, बैठे तिस थाएण ॥२७॥


१जिस ळ।
२आगा।
३भाव स्री अमर दास जी मिलन दा हुलास बहुत रखदे हन।
४खिड़ रिहा है।
*पा:-इनहु।
५कपड़े दी (बुज़कल) तोण हज़थ बाहर कज़ढे।
६(मैण) जोग नहीण।
७अनद प्रसंनता।
८पुज़छदे हन प्रसंन हो के।
९तिआर।

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