Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ५) १७७
१९. ।माता जीतो जी सज़चखंड पयान॥
१८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ५ अगला अंसू>>२०
दोहरा: अलप अहारन होइ करि, बैठहि१ आसन धारि।
द्रिशटि ठहिरावै नासका*, मन ते बाशन डार२ ॥१॥
चौपई: खशट महीने साधो जबै।
सिज़धां प्रापति होई सबै।
साधति दादश मास बिताए।
अंत्रजामता अुर बिदताए ॥२॥
भूतत भविज़खत की सभि बात।
भई रिदे महि सभि बज़खात।
गुर की गति३ जबिहूं मन जानी।
-जंग बीच हुइ संतति हानी- ॥३॥
अपर बारता सभि बिदताई।
इक दिन पुनि सतिगुर ढिग आई।
सकल कला समरथ गुरपूरन।
थपहु अुथापहु रावर तूरन ॥४॥
खाली भरो भरे करि खाली।
थापहु* नासहु चहहु अुताली।
जग महि बंस राखिबो करीयहि।
पुरहु आस इह आप बिचरीयहि ॥५॥
स्री जीतो ते सुनि मुसकाए।
भूत भविज़खत तुव लखि पाए।
संतति के हित जोग कमायो४?
कै परलोक भलो अुर भायो ॥६॥
मोह आदि से सकल बिकारा।
इन ते चहीयहि बनिबो नारा।
तैण बिज़प्रीत सगल इह धारी।
१(माता जी) बैठदे हन।
*इह गीता दा अुपदेश है।
२वाशना दूर करके।
३गुराण (दे भांे) दी गती।
*पा:-बखशहु।
४की तूं आपणी अुलाद वासते योग कमाया है?