Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) ३०

२. ।माता जी दी सपुज़त्र हित याचना ते गुरू जी दी आगा॥
१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ३ अगला अंसू>>३
दोहरा: दासी प्रिथीए की सुनति, दंपति के सभि बैन।
मन प्रसंन अति ही भई, करि बिचार दिन रैन ॥१॥
श्री गुर अरजन की हुती, इक दासी बुधिवान।
तिह सोण कहो प्रसंग सभि, जितनो कीन बखान ॥२॥प्रिथीए निज तिय निकट हुइ, गुर अरजन पर कोप।
दियो स्राप -सुत होहि नहि- इह राखहु अुर गोप ॥३॥
-सकल पदारथ हम लहैण, जबि गुर म्रितु को पाइ।
गुरिआई को लेहि तबि, चिंता करहु न काइ- ॥४॥
होनहार निशचै इही, जानी जाति सु बात।
बीते संमत बहुत ही, नहि जनमो ग्रिह तात ॥५॥
यां ते मालक इही हैण, गुरता जुत घर बार।
नहि अपरन को प्रापती, देखहु रिदै बिचार ॥६ ॥
सोरठा: गुर दासी सुनि बैन, नैन भरे जल कहति इमु।
दे प्रभु! सुत गुर ऐन, गुरता इन के होहि किम ॥७॥
अजहु न जरा अरूढ१, दंपति की बय है तरुन।
मतसर अगनी गूढ, जरति मरति कहि दुरबचन ॥८॥
बसहि गुरू को धाम, इह अुजरे जग फिरहिगे।
सुत जनमहि अभिराम, जिसु हेरति रिपु डरहिगे ॥९॥
मिलि दासी इम दोइ, निज निज पख की बात करि+।
अपने मंदरि सोइ, गमनी चिंता रिदै धरि++ ॥१०॥
गुर अरजन के धाम, आनि सुनाई तरक जुत।
इम प्रिथीए की बाम२, बुरा चितहि -किम है न सुत- ॥११॥
सगरो सुनो प्रसंग, तिन की दासी ने भनो३।भरी हरख के संग१, मैण दुख पावति सिर धुनो ॥१२ ॥


१बुढेपा नहीण आइआ।
पा:-इह।
+पा:-कहि।
++पा:-लहि।
२इसत्री।
३प्रिथीए दी दासी ने जो किहा सी।

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