Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) १८३२०. ।महांदेव ते प्रिथीए दा झगड़ा॥
१९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ३ अगला अंसू>>२१
दोहरा: सुनि कै प्रिथीआ लखहि मन, -इह भोरो मति नाहि।
आलस की लालस जिसे, रहै बैठि* घर मांहि- ॥१॥
सैया छंद: महांदेव तुम सुनो भ्रात जी!
जे अबि अुज़दम करिहौण नांहि।
शज़त्र सहोदर ने सभि लीनसि
हमरो बंस कहां ते खाहि।
जे अबि मुझ ते लई गई नहि
पुन गुरता किम को ले पाहि।
मैण समरथ हौण लैबे को इह,
बिलम जानि की दिज़ली मांहि ॥२॥
मेरो का बिगरैगो कहु तूं
महिमा इस की जगत बिसाल।
दरब पदारथ अधिक अनूठे१
चहुदिशि ते आवैण ततकाल।
झगरति कैद होइ तबि हौरा
हेरहिगे नर देशनि जाल।
पुनहि अुपाइन अरपहिगे नहि
कितिक दिवस महि हुइ अस हाल ॥३॥हम दोनहु लघु ऐशरज मांही,
गादी बैठि भयो धनवान।
चहुदिशि ते गन संगति सिज़खन
अनगन दरब वसतु देण आनि।
तूं किम जरहि, जरहि नहि अुर मैण२
हम तीनहु इक पितके जानि।
इक मालक दै रहैण सु छूछे
इम अनीति तूं मन महि मानि ॥४॥
पातिशाह पहि करौण पुकारनि
*पा:-पैठि।
१अंोखे।
२तूं किवेण सहारदा हैण (मैण तां) दिल विच नहीण सहारदा (अ) तूं किस तर्हां सहारदा हैण दिल विच
सड़दा नहीण।