Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) १८७

२६. ।भाई लखू बुज़ध॥
२५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>२७
दोहरा: परे बंधि१ दल दो खरे, छुटैण तुफंग रु तीर।
जोधा वधहि प्रहार करि, पुन निज थिर२ हैण तीर ॥१॥
पाधड़ी छंद: तबि कुतब खान प्रेरो तुरंग।
गहि धनुख ऐणचि बड ओज संग।
खर सर निकारि गुन महि अरोपि३।
सभि कौ दिखाइ रण कीनि चौणप ॥२॥
तकि तान कान लगि बान छोरि।बेधिति सु बेग भट गुरनि ओर४।
बजियंति राग मारू निशान।
दिखयंति बीर जुझति महान ॥३॥
बिच बाहिनी सु गुर सथित होइ।
अविलोक जंग जिम लरति दोइ।
दुहि दिशनि दीह दुंदभि बजंति।
अुत खान सु काला रन दिखंति ॥४॥
गुर सुभट बली लखू सु नाम।
हय को फंदाइ करि जंग धांम।
पहुंचो समीप जहि कुतबखान।
भरि बान प्रहारहि तान तान५ ॥५॥
तिह निकटि और अुमराव बीर।
हुइ अज़ग्र चांप ऐणचति सधीर।
गुरु सुभट वधहि जबि समुख आइ।
तकि तान बान को करति घाइ ॥६॥
तन दिपहि बिभूखन हेम जाणहि।
जर जबर जवाहरि ग़ेब मांहि।
तिस के समीप लखू सिधाइ।
खर सर निकारि मन मैण रिसाइ ॥७॥


१पर्हे बंन्ह के, भाव टोले बंन्ह के।
२पर्हा, मिसल।
३चिज़ले विच संधके।
४गुरू जी वल दे सूरमिआण ळ।
५कज़स कज़स के।

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