Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुरप्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १९२
कबि बैठहिण सुनि शबद सु नादि१।
घाली घाल२ अधिक जबि ऐसे
देखति सिज़ख होहिण बिसमादि ॥३१॥
-मधरो डील सरीर अलप३ इन,
बहुर ब्रिज़ध, बल नहिण जिन मांहि।
सेत केस, तन चरम सिथल बहु,
सेवा सभि ते अधिक कराहिण।
चरन अंगूठा निस मुख राखति,
नहिण सोवति कबहूं चित चाहि।
जाम जामनी ते जल आनहिण
गुरू शनानहिण प्रेम अुमाहि ॥३२॥
सीत अुसन४ बरखा बड होवति
सेवहिण इक सम जानहिण नांहि५।
तप बिसाल कर घाल सु घालहिण
धंन जनम करि लीनि अुपाहि++।
तज़दपि रु नहिण गुर कछु करि हैण*
अुदासीन सी ब्रिती रखाहिण।
निकट बिठाइ न बोलहिण बूझहिण,
अगम गुरू, गति लखी न जाहि- ॥३३॥
सिख इम भनति६, अपर जे नर हैण
बहु बिधि के ठानहिण अुपहास।
-घर ते मनहु निकासो किसि ने
दरब नहीण कुछ इस के पास।गुर निरासरे को सु आसरा
इम लखि आयहु इनहु अवास।
१शबद कीरतन।
२कमाई।
३छोटा सरीर।
४ठढ गरमी, अुन्हाल सिआल।
५(ठढ गरमी बरखा) ळ नहीण जाणदे, परवाह नहीण करदे।
++पा:-लीन अुमाहि।
*पा:-तज़दपि गुर रुख नहिण कछु इस दिश॥
६अंक ३२ ते ३३ विच सिख जिवेण कहिणदे हन ओह दज़सिआ है, ते जो लोक हासी करदे हन अुहनां
दी गज़ल अज़गे दज़सं लगे हन।