Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) १९०

हति दीनसि लाखहु तुरकाना।
ग्राम नगर भा शोक महाना।
लिखि भेजो डज़ले को तबै।
गुर को पकरि देहु इत अबै ॥४५॥
हग़रत देहि तोहि बडिआई।
गहो अचानक देहु पठाई।
नांहि त चमूं आनि करि भारी।
तोहि सहत ले है गुर मारी ॥४६॥
सो कागद आयो पढि लीनि।
अुज़तर को लिखाइ तबि दीनि।
संग गुरू के प्रान हमारे।
किम दैहैण तुझ मरे न मारे१ ॥४७॥
जे करि चमूं घनी पुन आवै।
मारि कितिक हम तजि पुरि जावैण।
जाइ प्रवेशहि जंगल मांही।
जहां नीर हुइ प्रापति नांही ॥४८॥
गुर के संग रहैणगे सदा।
तेरो हुकम करहिगे अदा२।इम लिखि पठो सुनति दुख पायो।
महां मूढ को बस न बसायो ॥४९॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज गिं्रथे प्रथम ऐने गोदड़ीआ, भागो प्रसंग
बरनन नाम दै बिंसती अंसू ॥२२॥


१मरे मारे बिना।
२अदा, भाव दूर।

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