Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) १८९
तूरन संग सुधारहु अंग ॥३६॥
ग़ीन ग़री के सभि पर डालहु।
करि राखहु थिर तार अुतालहु।
सुनि आइसु को तुरत सिधारे।
सरबंगन महि कीनसि तारे ॥३७॥
बसन बिभूखन सुंदर पाए।
दे कविका तिस थान फिराए।
आप अुतायल पहुचे तहां।
प्रापति भई भीर बहु जहां ॥३८॥
कौतक दरसहि मन बिसमाए१।
जलत मसाल झार समुदाए।
श्री प्रभु खरे सभिनि महिशोभैण।
किस की सम कहु, कौन न लोभै२? ॥३९॥
मुख पर जोति चगूनी लसे।
शसत्रनि सहत खरे कट कसे।
दरशन दीनसि भली प्रकारा।
सभि को अुपजो अनद अुदारा ॥४०॥
बिच कनात के चहति प्रवेशा।
दे अुपदेश विशेश अशेशा।
धंन धंन सतिगुर सुखदाई।
अुचरहि चहुदिशि नर समुदाई ॥४१॥
दोहरा: द्रिशट परति हैण सभिनि के, श्री सतिगुर तिस काल।
नहीण सपरशन होति है, इम लखि बिसम बिसाल३ ॥४२॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज गिं्रथे अुज़तर ऐने बैकुंठ गमन प्रसंग
बरनन नाम तीन बिंसती अंसू ॥२३॥
१(श्री गुरू जी दा) इह कौतक देखके मन विच हैरान हन।
२किस दी समानता कहां, (आखो अुस वेले) कौन नहीण लुभाइआ।
३भाव गुरू जी द्रिशटी तां सारिआण ळ आ रहे हन पर नेड़े हो के छोह प्रापत नहीण हो सकदी, इअुण
लखके सारे बहुत हैरान हो रहे हन।